प्राचीन भारत का इतिहास और भारत के नामकरण की कहानी

क्या आप प्राचीन भारत का इतिहास के बारे में जानते हैं ? अगर नहीं तो आइये अपना ज्ञान वर्धन करें !!

प्राचीन भारत का इतिहास अनेकानेक विलक्षणता से परिपूर्ण है । आइये भारत के नामकरण से सम्बंधित तथ्यों की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करते हैं ।

प्राचीन भारत का इतिहास के बारे में अध्यन करते वक़्त हमें पता चलता है कि पुराणों में सात द्वीपों (जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप तथा पुष्करद्वीप) का वर्णन है। जिनके अलग अलग वर्ण, उपद्वीप, पर्वत, सागर, इष्टदेव, नदियाँ तथा शासक थे । सनातन धर्म के अनुशार सम्पूर्ण भूलोक को इन्ही सात द्वीपों में बाटे जाने का विधान पाया जाता है । इसमें से जम्बू द्वीप सभी के बीचोबीच स्थित है। आज का भारत इसी बृहद भूभाग, जम्बू द्वीप का एक भाग है। आइये इस बात की पुष्टि विष्णु पुराण के इस श्लोक से करते हैं ।
“जम्बूद्वीप: समस्तानामेतेषां मध्य संस्थित:,
भारतं प्रथमं वर्षं तत: किंपुरुषं स्मृतम्‌,
हरिवर्षं तथैवान्यन्‌मेरोर्दक्षिणतो द्विज।
रम्यकं चोत्तरं वर्षं तस्यैवानुहिरण्यम्‌,
उत्तरा: कुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा।
नव साहस्त्रमेकैकमेतेषां द्विजसत्तम्‌,
इलावृतं च तन्मध्ये सौवर्णो मेरुरुच्छित:।
भद्राश्चं पूर्वतो मेरो: केतुमालं च पश्चिमे।
एकादश शतायामा: पादपागिरिकेतव:
जंबूद्वीपस्य सांजबूर्नाम हेतुर्महामुने।“ (विष्णु पुराण)

 

क्या आपने कभी गौर किया है कि जब आपके घर में कोई पूजा पाठ का अनुष्ठान होता है तो पंडितजी आपसे एक संकल्प कराते हैं, और संकल्प कराते वक़्त एक मन्त्र का उच्चारण करते हैं “जम्बू द्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते दिल्ली इति नाम शहरे ….. “ जिसका मतलब है अर्थात जम्बू द्वीप के अंतर्गत भारत वर्ष खंड में आर्यावर्त देश के अंतर्गत दिल्ली नाम के शहर में…. ।

प्राचीन भारत का इतिहास के बारे में विषय वस्तु को ठीक से समझने के लिए आइये यह जान लें कि जम्बू द्वीप का आशय आज के यूरेशिया (यूरोप+एशिया) के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस जम्बू द्वीप में भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात ‘भारतवर्ष’ स्थित है, उसके अंतर्गत आर्यावर्त का क्षेत्र आता है ।

प्राचीन भारत का इतिहास हमें बताता है कि  सम्पूर्ण जम्बू द्वीप को ९ खण्डों में विभक्त किया गया था, जिसका विस्तार से वर्णन हम बाद में करते हैं । इसी 9 खण्डों में एक खंड का नाम भारत वर्ष है ।

“हिमालयं दक्षिणं वर्षं भरताय न्यवेदयत् । तस्मात्तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधा:…..।।“

अर्थात हिमालय पर्वत से दक्षिण का वर्ष अर्थात क्षेत्र भारतवर्ष है।

  • जम्बू दीप : सम्पूर्ण यूरेशिया
  • भारतवर्ष : पारस (ईरान), अफगानिस्तान, पाकिस्तान, हिन्दुस्थान, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, कम्बोडिया, वियतनाम, लाओस तक भारतवर्ष।

आर्यावर्त

प्राचीन भारत का इतिहास की जानकारी प्राप्त करते समय आर्यावर्त का नाम आना स्वाभविक ही है। बहुत से लोग भारतवर्ष को ही आर्यावर्त मानते हैं, जबकि यह भारत का एक हिस्सा मात्र था। वेदों में उत्तरी भारत को आर्यावर्त कहा गया है। आर्यावर्त का अर्थ आर्यों का निवास स्थान। आर्यभूमि का विस्तार काबुल की कुंभा नदी से भारत की गंगा नदी तक था।

प्राचीन भारत का इतिहास के अध्यन में आज बहुत से लोग इस भ्रान्ति का शिकार हैं कि हिन्दुस्थान यानि कि हिंदुस्तान का ही नाम भारतवर्ष था और पूर्व में इसे जम्बू द्वीप के नाम से जाना जाता था । लेकिन सच्चाई यह है कि आज जिसका नाम हिन्दुस्तान, भारत या इंडिया है वह वृहद भारतवर्ष का एक टुकड़ा मात्र है। वह तो आर्यावर्त का भी बस एक हिस्सा भर है। पूर्ण जम्बू द्वीप पहले देव-असुर और फिर बहुत बाद में कुरुवंश और पुरुवंश की लड़ाई और फिर विभिन्न संप्रदाय, विचारधाराओं के टकराव और लडाइयों के चलते कई कई भागों में बंटता चला गया था ।

प्राचीन भारत का इतिहास जानने वाले लोग एक दूसरी बहुत बड़ी भ्रान्ति के भी शिकार हैं जिसमें वे शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत से इस देश का नाम भारत को  जोड़ बैठते हैं । जिसके कारण भारत वर्ष का जन्म पाँच हजार पूर्व का ही होना विदित होता है । परन्तु  सच्चाई कुछ और है । इस सम्बन्ध में ज्यादा कुछ कहने के स्थान पर सिर्फ इतना ही कहना उचित होगा कि शकुंतला, दुष्यंत के पुत्र भरत से इस देश के नाम की उत्पत्ति का प्रकरण जोडऩा शायद नामों के समानता का परिणाम हो सकता है, परन्तु यह सत्य नहीं है, बल्कि यह एक भ्रान्ति है । हम हिन्दुओं में अपने धार्मिक ग्रंथों के प्रति उदासीनता के कारण भी ऐसा हुवा है । प्राचीन भारत का इतिहास हमें बताता है कि जब हमारे पास वायु पुराण ग्रन्थ और मन्त्रों के रूप में लाखों साल पुराने साक्ष्य मौजूद है तो ऐसी भ्रन्तिओं पर क्यों विश्वास करें ?? सिर्फ इतना ही नहीं हमारे संकल्प मंत्र में हजारों वर्षों कि परंपरा के तहत पंडित जी हमें सृष्टि सम्वत के विषय में बताते हैं कि …….. अभी एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरहवां वर्ष चल रहा है । फिर यह बात तो खुद में ही हास्यास्पद लगती है कि एक तरफ तो हम बात एक अरब 96 करोड़ आठ लाख तिरेपन हजार एक सौ तेरह साल पुरानी की करते हैं परन्तु, प्राचीन भारत के इतिहास को पश्चिम के लेखकों की कलम से केवल पांच हजार साल पुराना पढ़ते और मानने की भ्रान्ति पाल जाते हैं । अतः ऐसी बातों को मानना, या बहस करना एक आत्मप्रवंचना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।

आइये हम इस बात पर साक्छ्यों के आधार पर पहले पुष्ट हो लें कि हमारे प्राचीन भारत का इतिहास के अनुसार त्रेता युग के प्रारंभ में स्वयम्भुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भरत खंड को बसाया था । चूँकि महाराज प्रियव्रत को अपना कोई पुत्र नही था इसलिए, उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्रों को गोद ले लिया और उन्हें धर्म पुत्रों का अधिकार दिया । इस तरह उनके ज्येष्ठ पुत्र अग्नीन्ध्र का पुत्र नाभि हुवा था । नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था और इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे । इन्ही भरत के नाम पर इस देश का नाम “भारतवर्ष” पड़ा था । उस समय के राजा प्रियव्रत ने अपनी कन्या के दस पुत्रों में से सात पुत्रों को संपूर्ण पृथ्वी के सातों द्वीपों जिनका वर्णन ऊपर किया गया है का अलग-अलग राजा नियुक्त किया था । राजा का अर्थ उस समय धर्म, और न्यायशील राज्य के संस्थापक से लिया जाता था । इस तरह राजा प्रियव्रत ने जम्बू द्वीप का शासक अग्नीन्ध्र को बनाया तथा शाक द्वीप का शासक मेधातिथि को बनाया था । ऋषभ के पुत्र भरत ने जो अपना राज्य अपने पुत्र सुमति को दिया था और, वही “भारतवर्ष” कहलाया जाता था । ध्यान रखें कि भारतवर्ष का अर्थ है राजा भरत का क्षेत्र और इन राजा भरत के पुत्र का नाम सुमति था । इस भारत का संबंद्ध शकुंतला के पुत्र भरत से कहीं भी नहीं है । इस विषय में वायु पुराण कहता है…

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“सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत।“ (वायु 31-37, 38)

प्राचीन भारत का इतिहास का अध्यन हमें बताता है कि पूर्व काल में स्वायम्भुव नाम से प्रसिद्ध जो मनु हुए हैं वे ही आदि मनु और प्रजापति कहे गए हैं। उनके दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद। राजा उत्तानपाद के पुत्र परम धर्मात्मा ध्रुव हुए, जिन्होंने भक्ति भाव से भगवान् विष्णु की आराधना करके अविनाशी पद को प्राप्त किया। राजर्षि प्रियव्रत के दस पुत्र हुए, जिनमें से तीन तो संन्यास ग्रहण करके घर से निकल गए और परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गए। शेष उपर्युक्त वर्णित सात द्वीपों में उन्होंने अपने सात पुत्रों को प्रतिष्ठित किया। राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीघ्र जम्बू द्वीप के अधिपति हुए। उनके नौ पुत्र जम्बू द्वीप के नौ खण्डों के स्वामी माने गए हैं, जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृतवर्ष, भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, कुरुवर्ष, हिरण्यमयवर्ष, रम्यकवर्ष, हरीवर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को (नाभि खंड) भारतवर्ष कहते हैं। नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं।

नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से ‘भरत’ का जन्म हुआ; जिनके आधार पर इस देश को भारतवर्ष कहते हैं। भूलोक के मध्य में जम्बू द्वीप है। इसका विस्तार एक लाख योजन का बतलाया गया है। जम्बू द्वीप की आकृति सूर्यमंडल के सामान है। वह उतने ही बड़े खारे पानी के समुद्र से घिरा है। जम्बू द्वीप और क्षार समुद्र के बाद शाक द्वीप है, जिसका विस्तार जम्बू द्वीप से दोगुना है। वह अपने ही बराबर प्रमाण वाले क्षीर समुद्र से, उसके बाद उससे दोगुना बड़ा पुष्कर द्वीप है, जो दैत्यों को मदोन्मत्त कर देने वाले उतने ही बड़े सुरा समान समुद्र से घिरा हुआ है। उससे परे कुश द्वीप की स्थिति मानी गई है, जो अपने से पहले द्वीप की अपेक्षा दोगुना विस्तार वाला है। कुश द्वीप को उतने ही बड़े विस्तार वाले दही समान के समुद्र ने घेर रखा है। उसके बाद क्रोंच नामक द्वीप है; जिसका विस्तार कुश द्वीप से दोगुना है, यह अपने ही सामान विस्तार वाले घी समान समुद्र से घिरा है। इसके बाद दोगुना विस्तार वाला शाल्मलि द्वीप है; जो इतने ही बड़े ईख रस समान समुद्र से घिरा हुआ है। उसके बाद उससे दोगुने विस्तार वाले गोमेद (प्लक्ष) नामक द्वीप है; जिसे उतने ही बड़े रमणीय स्वादिष्ट जल के समुद्र ने घेर रखा है।

प्राचीन भारत का इतिहास का अध्यन हमें बताता है कि जम्बू द्वीप के मध्यभाग में मेरु पर्वत है, यह ऊपर से नीचे तक एक लाख योजन ऊंचा है। सोलह हजार योजन तो यह पृथ्वी के नीचे तक गया हुआ है और चौरासी हजार योजन पृथ्वी से ऊपर उसकी ऊंचाई है। मेरु के शिखर का विस्तार बत्तीस हजार योजन है। उसकी आकृति प्याले के सामान है। वह पर्वत तीन शिखरों से युक्त है, उसके मध्य शिखर पर ब्रह्माजी का निवास है, ईशान कोण में जो शिखर है, उस पर शंकरजी का स्थान है तथा नैऋत्य कोण के शिखर पर भगवान विष्णु की स्तिथि है।

मेरु पर्वत के चारों ओर चार विष्कम्भ पर्वत माने गए हैं। पूर्व में मंदराचल, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में सुपार्श्व तथा उत्तर में कुमुद नामक पर्वत है। इनके चार वन हैं जो पर्वतों के शिखर पर ही स्थित हैं। पूर्व में नंदन वन, दक्षिण में चैत्र रथ वन, पश्चिम में वैभ्राज वन और उत्तर में सर्वतोभद्र वन है। इन्हीं चरों में चार सरोवर भी हैं। पूर्व में अरुणोद सरोवर, दक्षिण में मान सरोवर, पश्चिम में शीतोद सरोवर तथा उत्तर में महाह्रद सरोवर है। ये विष्कम्भ पर्वत पच्चीस पच्चीस हजार योजन ऊचे हैं। इनकी चोड़ाई भी हजार हजार योजन मानी गई है। मेरुगिरी के दक्षिण में निषध, हेमकूट और हिमवान- ये तीन मर्यादा पर्वत हैं। इनकी लम्बाई एक लाख योजन और चौड़ाई दो हजार योजन मानी गई है। मेरु के उत्तर में भी तीन मर्यादा पर्वत हैं- नील, श्वेत और श्रंग्वान। मेरु से पूर्व माल्यवान पर्वत है और मेरु के पश्चिम में गंधमादन पर्वत है। ये सभी पर्वत जम्बू द्वीप पर चारों ओर फैले हुए हैं। गंधमादन पर्वत पर जो जम्बू का वृक्ष है, उसके फल बड़े बड़े हाथियों के समान होते हैं। उस जम्बू के ही नाम पर इस द्वीप को जम्बू द्वीप कहते हैं।

अब आइये ऊपर लिखे जम्बू द्वीप और क्षार समुद्र के बाद शाक द्वीप, जिसका विस्तार जम्बू द्वीप से दोगुना है।

प्राचीन भारत का इतिहास हमें जम्बू द्वीप के बगल में प्रस्थापित शाकद्वीप के बारे में भी कुछ जानकारियां देता है।

शाकद्वीप के शासक प्रियव्रत के पुत्र मेधातिथि थे । शाकद्वीप में भी सात उपद्वीप थे जिनका नाम क्रमश: पुरोजव, मनोजव, पवमान, धुम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और चित्रधार है। ये नाम मेधातिथि के पुत्रों के नाम पर रखा गया था जिन्होंने इन उपद्वीपों पर राज किये । यहाँ ईशान, उरुशृङ्ग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस नामक सप्त मर्यादापर्वत थे तथा अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्ठि, अपराजिता, पञ्चपदी, सहस्रस्रुति और निजधृति नामक सात नदियाँ थी । यहाँ की जातियाँ (वर्ण) ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत तथा अनुव्रत हैं तथा इनके इष्टदेव श्रीहरि थे। इस शाकद्वीप में शाक नामक वृक्ष बहुतयात में पाए जाते थे जिनकी मनोहर सुगंध पूरे द्वीप में छाई रहती थी । इन्ही शाक वृक्षओं के नाम से संभवतया इस द्वीप का नाम भी शाकद्वीप रखा गया होगा । यहाँ के वासी, बीमारियों से दूर तथा हजारों वर्षों तक जीवित रहने वाले थे ।

अब आइये शाकद्वीप से लाये गए शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का भी परिचय प्राप्त कर लें । दरअसल इन ब्राह्मणों की संख्या आज के भारत में भी एक बड़ी मात्रा में है । वेद तथा पुराणों में इनका उल्लेख ब्राह्मणों की एक सर्वोत्तम जाति के रूप में है जिनका जन्म सूर्यदेव के अंश से हुआ था। महाभारत काल में इन्हें शाक द्वीप से जम्बू द्वीप लाया गया था। इनमे सूर्य के समान ही तेज था। ये सभी ब्राह्मण मूलतः शाकद्वीप में निवास करते थे तथा योनिज न होने के कारण ये दिव्य कहलाते हैं। ये लोग अग्रणी सूर्योपासक माने जाते हैं। मनुस्मृति के अनुसार सूर्यास्त के पश्चात श्राद्ध कर्म निषेध है, ऐसे में एक शाकद्वीपीय ब्राह्मण को सूर्य वरण करके श्राद्ध कार्य संपन्न कराया जा सकता है। यह बात उनकी विशिष्टता तथा दिव्यता का सूचक है। ये लोग आध्यात्मिक शास्त्र, तंत्र विद्या, भविष्य ज्योतिष, तथा पुरातन विशिष्ट चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में एकाधिकार प्राप्त थे । भविष्य पुराण आदि में भी इन्हें दिव्य ब्राह्मण के रूप में जाना गया है।

शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के जम्बू द्वीप में आगमन के बारे में कहा गया है कि जब भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब को श्राप से कुष्ठ रोग हुआ तब वे अत्यंत चिंतित हो गए। यहाँ उनका भरपूर इलाज किया गया लेकिन कुछ विशेष लाभ नहीं हुवा तब यहाँ के चिकत्सकों ने उन्हें एक विप्र जाति के संबंध में जानकारी दी जो शाकद्वीप में रहती थी। भगवान कृष्ण नें शाकद्वीप के अट्ठारह परिवारों को जम्बूद्वीप में सम्मान पूर्वक बुलवाया। साकद्वीपीय ब्राह्मणों ने साम्ब के कुष्ठ रोग को अपने आध्यात्मिक व आयुर्वेदिक चिकित्सा से समाप्त कर दिया। कालान्तर में मगध नरेश ने शाकद्वीपीय ब्राह्मणों के बहत्तर परिवारों को मगध के विभिन्न पुरों में बसा दिया । वहां से ये लोग भारत के विभिन्न भागों में फ़ैल गए ।

प्राचीन भारत का इतिहास हमें हमारे वेद पुराणों में भूलोक, पाताललोक तथा देवलोक का वर्णन पाया जाता है । भूलोक का तात्पर्य हमारी धरती से था जहाँ उप्रर्युक्त बर्णित सात द्वीप थे । वहां सनातन धर्म प्रचलित था। सनातन धर्म में प्रकृत पूजा की प्राथमिकता थी । महाभारत में उद्दालक ऋषि के पाताललोक का वर्णन है जो धरती के उलटे दिशा में स्थित है । पाताल लोक पानी में स्थित है अर्थात जहाँ जाने के लिए पानी या समुद्र से होकर एक लम्बी दुरी तय करनी पड़ती थी । यह भाग दरअसल आज का अमेरिका व अन्य वहां के देश है । देव लोक का तात्पर्य पृथ्वी के उस भूभाग से है जहा दिव्य आत्माएं निवास करती हैं । इलावृत देश के उत्तर की ओर नंदन कानन नामक वन था, माना जाता है कि नंदन कानन का क्षेत्र ही इंद्र का लोक था जिसे देवलोक भी कहा जाता है। महाभारत में इंद्र के नंदन कानन में रहने का उल्लेख मिलता है।

नर्कलोक का आशय आकाश में स्थित उन ग्रहों से है जहाँ के लोग असीम दुःख भोगते हैं तथा स्वर्गलोक का आशय आकाश में स्थित उन ग्रहों और वहां के रहने वाले दिव्य निवासीओं से ही है जिनमे असीम दिव्य शक्तियां हैं और जो शायद आज के एलियन होगें ।

आइये अब हम पुनः जम्बू द्वीप पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुवे इसका विचार वर्तमान भगौलिक स्थिति से करते हैं ।

जम्बू द्वीप के आसपास 6 द्वीप थे- प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। जम्बू द्वीप धरती के मध्य में स्थित है और इसके मध्य में इलावृत नामक देश है। आज के कजाकिस्तान, रूस, मंगोलिया और चीन के मध्य के स्थान को इलावृत कहते हैं। इस इलावृत के मध्य में स्थित है सुमेरू पर्वत। इलावृत के दक्षिण में कैलाश पर्वत के पास भारतवर्ष, पश्चिम में केतुमाल (ईरान के तेहरान से रूस के मॉस्को तक), पूर्व में हरिवर्ष (जावा से चीन तक का क्षेत्र) और भद्राश्चवर्ष (रूस), उत्तर में रम्यकवर्ष (रूस), हिरण्यमयवर्ष (रूस) और उत्तकुरुवर्ष (रूस) नामक देश हैं। मिस्र, सऊदी अरब, ईरान, इराक, इसराइल, कजाकिस्तान, रूस, मंगोलिया, चीन, बर्मा, इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, हिन्दुस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान का संपूर्ण क्षेत्र जम्बू द्वीप था।

आर्यों के निवास स्थान को लेकर भी काफी भ्रांतियां हैं । ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को ‘सप्तसिंधु’ प्रदेश कहा गया है। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10/75) में आर्यनिवास में प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन मिलता है, जो मुख्‍य हैं:- कुभा (काबुल नदी), क्रुगु (कुर्रम), गोमती (गोमल), सिंधु, परुष्णी (रावी), शुतुद्री (सतलज), वितस्ता (झेलम), सरस्वती, यमुना तथा गंगा। उक्त संपूर्ण नदियों के आसपास और इसके विस्तार क्षेत्र तक आर्य रहते थे।

वेद और महाभारत को छोड़कर अन्य ग्रंथों में जो आर्यावर्त का वर्णन मिलता है वह भ्रम पैदा करने वाला है, क्योंकि आर्यों का निवास स्थान हर काल में फैलता और सिकुड़ता गया था इसलिए उसकी सीमा क्षेत्र का निर्धारण अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग मिलता है। मूलत: जो प्रारंभ में था वही सत्य है।

प्राचीन भारत का इतिहास का वर्णन हमें बताता है कि हिन्दुस्थान बनने की कहानी महाभारत काल में ही लिख दी गई थी जबकि महाभारत हुई थी। महाभारत के बाद वेदों को मानने वाले लोग हमेशा से यवन और मलेच्छों से त्रस्त रहते थे। महाभारत काल के बाद भारतवर्ष पूर्णत: बिखर गया था। सत्ता का कोई ठोस केंद्र नहीं था। ऐसे में खंड-खंड हो चला आर्यखंड एक अराजक खंड मात्र बनकर रह गया था।

भारत के उदय और इसके उत्पत्ति से सम्बंधित यथा संभव तथ्यों को विभिन्न श्रोतों के संकलन से प्राप्त किया गया है, आशा है इससे भारत के उदय सम्बंधित कुछ ज्ञान वर्धन तो अवश्य होगा ।

जयति पुण्य सनातन संस्कृति, जयति पुण्य भूमि भारत ।
जय जय जय हो, सदा सुमंगल, वंदेमातरम, वंदेमातरम ।।

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  • Harish Patel

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